Sunday 22 May 2011

नारी



नारी
नारी  तुम  कोमल  नहीं क्रान्तद्रष्टा  हो 
तुम्हे अपनी जिंदगी  जीने का पूरा हक है 
तुम केवल एक  बेटी ,बहिन
  या माँ नहीं हो  
    तुम्हारा व्यकितत्व      एक समूचा  खंड  है  
तुम्हारा जीवन सिर्फ पतझड 
का  ही नहीं  अपितु पतझड़ के बाद 
वसंत का भी अधिकारी है 

तुम एक  संपूर्ण दर्पण  हो 
दर्पण के  बिखरने  पर भी 
तुम पूर्ण    रूप हो

                  



मेरा देश

मेरा देश                                                                              
मुझे अपने देश के अतीत                                                                                        
पर बहुत गर्व है 
वो सोने की चिड़िया                                              
कहलाने वाला भारत
क्योकि अतीत सभी को 
अच्छा लगता है
हम वर्तमान में
अतीत की पीड़ा को भूल जाते है
वर्तमान में पीड़ा ,संत्रास है
नेताओं की करनी का फल भोग रही जनता है
देश में फैली बेरोजगारी है
जनता बेचारी दुःख की मारी है
हर पाँच साल बाद
चुनावी लहर आती है
वोटो की नदी में सब 
कुछ डुबो जाती है जनता बेचारी किनारे पर खड़ी
 लहर




बालिका वर्ष को समर्पित


    तुम
                           

तुम मेरी कहानी की एक ऐसी अनामिका पात्रा हो 
जो चाहकर भी अपनी
परिस्थितियों से लड़ नहीं पाती 
क्योंकि तुम बिलकुल अकेली हो 
उस चाँद की तरह 
जो सबके निद्रा में लीन हो जाने पर 
अपनी रोशनी बांटता है 
लेकिन तुम 
तो ऐसा भी नहीं कर सकती 
तुम वो चाँद हो जिसे 
ग्रहण  लग चुका है
और मैं 
मैं शायद तुम्हारी भविष्यवक्ता हूँ
मैं यहीं देख सकती हूँ
कि तुम कब ग्रहण से मुक्त होगी 
लेकिन तभी जब
ये तारे तुम्हारा साथ देंगे
परन्तु ये मुमकिन नहीं है
तब
तुम्हारा क्या होगा?
क्या तुम
संसार को कभी
अपनी उज्ज्वल शुभ्र
चाँदनी नहीं दे सकोगी



   

कहाँ गए वो लोग

            कहाँ गए वो लोग
भारत की स्वंतंत्रता में भाग लेने वाले न जाने
कहाँ खो गए
कहाँ गए वो आज़ादी
के सपनो की महक लेने वाले
एक भीड़ तमाशा देखने वालो की
एक हुजूम तमाशा दिखलाने वालो का
कहाँ गया वो रामराज्य का सपना
कहाँ गयी वो वन्देमातरम की पुकार
अब है सिर्फ साँस लेती तस्वीरे
जिंदगी की तेज रफ़्तार में
दौडती चंद भावहीन लाशें
सिर्फ नाम का देश भारत
संसार के नक्शें में दिखाई देता हुआ भारत
देश को फिर से जीवित  करने
कहाँ से आयेगें वो लोग 
ज़रूरत है आज एक 
और चाणक्य की 
जो फिर से पिरो सके 
मेरे भारत को एक सूत्र में 
खोजती हूँ  मैं.